त्रिलोक सिंह जीवन संग्राम के सुभट योद्धा हैं । बड़ी से बड़ी समस्या का हल उनके पास होता है । त्रिलोक दा को शॉर्ट कट में तिल दा कहते हैं । तिल दा हरफ़नमौला इंसान हैं । स्कूल टाइम में तिल दा पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि होने के साथ साथ डान्स में , लड़ाई झगड़े दादागिरी , नेतागीरी हर चीज़ में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे । तिल दा का ब्रेक डान्स बहुत मशहूर था । दो पेग लगाकर तिल दा जब भाषण देते थे सभी उनको मंत्र मुग्ध होकर सुनते थे ।
कल अचानक तिल दा से मुलाक़ात हुई । पुरानी बातों का ज़िक्र छिड़ा और शुरू हुई चाय पे चर्चा । मैंने तिल दा से उनकी सम्पन्नता और उससे भी ऊपर उनकी ख़ुशहाली का राज पूछा । तिल दा ने एक शब्द में गागर में सागर भर दिया – संतुलन ।
जैसे हम खाना बनाते हैं तो नमक, मिर्च, मसाला इत्यादि संतुलित मात्रा में डालते हैं उसी प्रकार जीवन में संतुलन ज़रूरी है ।
अगर आप समाज सेवा करते हैं तो उसकी भी एक सीमा है । आपकी कमाई आपकी बीवी बच्चों का हक़ है । समाज सेवा में अपनी कमाई का दो प्रतिशत खर्च करने में कोई बुराई नहीं लेकिन उससे ऊपर की समाज सेवा अपने बच्चों से अन्याय करने जैसा है । इसी प्रकार बोलना अच्छी बात है लेकिन वाचाल होना ग़लत है । सब कुछ उचित मात्रा में होगा तो एक शानदार रेसिपी के साथ एक शानदार जीवन जिया जा सकता है ।