एक था नत्थू

बचपन की हर साधारण से साधारण बात उम्र बढ़ने के साथ असाधारण हो जाती है। सभी का बचपन बड़ा निष्पाप, मासूम और नटखट यादों से भरा होता है। मेरा बचपन प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पक्षियों के कलरव भरे आकाश वाले रामगढ़ में बीता जो हमारा प्रैत्रिक गाँव है। रामगढ़ फलों के लिए पूरे उत्तराखंड में मशहूर है। गर्मियों में यहाँ बगीचे आड़ू, प्लम, खूबानी, सेब, नाशपाती आदि फलों से भरे होते हैं। बगीचों में फलों को तोते आदि पक्षियों से ख़तरा रहता है इसलिए चौकीदार खूब हल्ला करते रहते हैं। हमारे बगीचे के ऊपर वाले बगीचे में चौकीदारी करते थे नत्थू जो सुबह से शाम तक लगातार अपनी सुरीली आवाज़ में फ़िल्मी गाने गाते थे। नत्थू को दर्जनों फ़िल्मी गाने ज़ुबानी याद थे। पूरे सीजन लगातार लगभग चार महीने गाने पर कभी नत्थू का गला नहीं बैठा। नत्थू मूल रूप से बहेडी के रहने वाले थे इसलिए उनकी बोली हमसे काफ़ी अलग थी। होली में भी नत्थू समाँ बाँध देते थे – कहाँ रांगे हरे कलेवा कहा रांगे मोरला, का खाँगे हरे कलेवा का खाँगे मोरला ये होली नत्थू बड़े चाव से गाता था। अगर नत्थू को सही प्रशिक्षण मिल गया होता तो नत्थू निश्चित ही बहुत बड़ा फ़नकार होता इसमें कोई संदेह नहीं।

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