खड़क दा बड़े मज़ाक़िया क़िस्म के इंसान हैं । जो बात साधारण से दिखने वाले खड़क दा को असाधारण बनाती है वो है जिह्वा पर उनका अकल्पनीय नियंत्रण । किसी ने खड़क दा को कभी किसी की बुराई करते नहीं सुना होगा । निंदा रस से एसा परहेज़ मैंने केवल किताबों में पढ़ा है कभी हक़ीक़त में देखा नहीं सिवाय खडक दा के । कबीरदास जी के दोहे ( बुरा जो देखन मैं चला ) को खड़क दा ने आत्मसात् कर लिया । उनकी वाणी से अपनापन झलकता है ओज टपकता है सकारात्मकता का एसा आभामंडल उनके चेहरे पर दिखता है वो बड़े बड़े सिद्ध पुरुषों में भी बड़ा दुर्लभ है । खड़क दा की सादगी वाक़ई अनुकरणीय है ।